सब महात्मा हमें यही उपदेश देते हैं कि इस मनुष्य-जन्म में आकर अपनी देह के अंदर मालिक की खोज करो लेकिन हम देह के अंदर मालिक को ढूँढने के बजाय उल्टे इस देह के ही मान और अहंकार में फँस जाते हैं। ज़रा गौर करके देखें कि हम इस शरीर में बैठकर किस चीज़ का मान और अहंकार करते हैं? हमने किसी का बुढापा नही देखा? क्या हमें भी इस बुढापे की उम्र नही पहुँचना है? स्वास्थ्य और तन्दुरुस्ती का गरूर करते है? क्या अस्पतालों में बीमारों की हालत नही देखी? रुपये-पैसे का अहंकार करते है? क्या बड़े-बड़े राजा-महाराजाओ सेठ-साहूकारों को कंगालों की तरह सड़कों पर भटकते नही देखा? फिर हम क्या दुनिया की हुकूमत या इज़्ज़त और मान-बड़ाई का अहंकार करते हैं? क्या बड़े-बड़े लीडरों नेताओं और तानाशाहों को फाँसी के तख्तों पर चढ़ते नहीं सुना या गोलियों का शिकार बनते नहीं देखा? रातों-रात अचानक हुकूमत के तख्ते पलट जाते हैं दूसरी पार्टी उनको उठाकर जेलखानों में डाल देती है फिर हम गरूर और अहंकार किस बात का करते हैं? कबीर साहिब समझाते है:-
“लकड़ी कहै लुहार सों तू मति जारे मोहिं। इक दिन ऐसा होयेगा मैं जारौगी तोहिं।”
“माटी कहै कुम्हार को तू क्या रुँदे मोहिं। इक दिन ऐसा होयेगा मैं रुँदूँगी तोहिं।
लुहार लकड़ी को जला-जलाकर उसके कोयले बनाता है लेकिन लकड़ी उससे कहती है कि कभी उस वक्त को भी अपनी आँखों के सामने रखकर सोच जब मैं तुझे साथ लेकर तेरे भी इसी तरह कोयले बना दूँगी। कुम्हार मिट्टी को रौंद-रौंदकर उसके बर्तन बनाता है लेकिन मिट्टी उससे कहती है कि एक दिन मै भी तुझे अपने साथ लेकर इसी तरह रौंद डालूँगी। स्वामी जी महाराज भी यही फ़रमाते है:- “मन रे क्यों गुमान अब करना तन तो तेरा ख़ाक मिलेगा चौरासी जा पड़ना।” महात्मा इसलिये हमें उपदेश देते हैं कि मन में हमेशा नम्रता और दीनता रखनी चाहिये। जितनी दीनता और नम्रता हमारे अंदर होगी उतना ही हमारा ख्याल मालिक की भक्ति की ओर जायेगा और हमें मालिक की बख्शीश मिलेगी। बाइबल में भी इस नम्रता और दीनता के बारे में लिखा है:- “धन्य हैं वे जो अंतर में दीन हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्ही का है।” स्वामी जी महाराज जी का भी यही उपदेश है:- “दीन गरीबी चित में धरना काम क्रोध से बचना।” गुरु अर्जुन साहिब प्रार्थना करते है:- “कहो नानक हम नीच करमा सरण परे की राखहो सरमा।”
उच्च कोटि के महात्मा होकर अपने बारे में कितने नम्र और दीनतापूर्ण शब्दों का उपयोग करते हैं। गुरु नानक साहिब अपनी वाणी में कई जगह अपने आप को लाला गोला (सेवक और गुलाम) दासों का दास नीच करमा कहते हैं। हमें इन महात्माओं से शिक्षा लेनी चाहिये जो धुरधाम पहुँचकर कुलमालिक बनकर भी दम नही मारते। हमारे हाथ कोई साधारण सी भी सत्ता या हुकूमत आ जाये तो हम इंसान को इंसान ही नही समझते हमारा ज़मीन पर चलना ही मुश्किल हो जाता है। कबीर साहिब समझाते है:- “बुरा जो देखन मैं चला,बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजौं आपना मुझसा बुरा न होय।
“कबीर सब तें हम बुरे हम तें भल सब कोय। जिन ऐसा करि बुझिया मित्र हमारा सोय।”
महात्माओं का हमें समझाने का सिर्फ यही मतलब है कि किसी चीज़ का घमंड और अहंकार नही करना चाहिये। इंसान के जामे में बैठकर मन में नम्रता दीनता और आजिज़ी रखनी चाहिये और ‘नाम’ की कमाई करनी चाहिये क्योंकि नाम की कमाई ही हमारा साथ देगी और तभी हमारा देह में आने का मक़सद पूरा हो सकेगा। दादू साहिब का कथन है:- “क्या मुँह ले हँसि बोलिये दादू दीजै रोइ। जनम अमोलक आपणा चले अकारथ खोइ।”
यही महात्मा चरनदास जी कहते है:-
“हाथी घोड़े धन घना चंद्र मुखी बहु नारि। नाम बिना जम लोक में पावै दुक्ख अपार।
यही गुरु नानक देव जी कहते है:-
“बिन नावै को संग न साथी मुकते नाम धिआवणिआ।
apke lekhan ko pranam.
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