विरहिणी आत्मा

विरहिणी आत्मा (संत कबीर साहिब की बानी)

वै दिन कब आबैंगे भाइ । जा कारनि हम देह धरी है , मिलिबौ अंगि लगाइ ॥ टेक ॥ हौं जानू जे हिल मिलि खेलूँ , तन मन प्रॉन समाइ । या काँमना करौ परपूरन , समरथ हौ राँम राइ ॥ माँहि उदासी माधौ चाहै , चितवत रैंनि बिहाइ । सेज हमारी स्यंघ | भई है , जब सोऊँ तब खाइ ॥ यहु अरदास दास की सुनिये , तन की तपति बुझाइ । कहै कबीर मिलै जे साँई , मिलि करि मंगल गाइ ॥

भारतीय परिवार में जब कन्या का जन्म होता है तो माता – पिता प्यार के साथ उसका पालन – पोषण करते हैं , परंतु साथ ही याद रखते हैं कि पराई अमानत है और विवाह के बाद अपने पति के घर चली जाएगी । इसी भावना के आधार पर कबीर साहिब कहते हैं कि आत्मा ने मनुष्य चोले में इसी लिए जन्म लिया है कि वह अपने पति परमात्मा से मिलाप प्राप्त कर ले । आत्मारूपी कन्या का विवाह तो पहले ही हो चुका है क्योंकि वर और वधू अर्थात् परमात्मा और आत्मा , एक ही घर में यानी एक ही शरीर में निवास करते हैं । दु : ख की बात यही है कि एक घर में रहते हुए भी आत्मा को अब तक परमेश्वररूपी पति के दर्शन नहीं हो सके । विरहिणी आत्मा की पुकार का चित्रण कबीर साहिब ने इस करुण विरह गीत में किया है ।

स्यंघ=सिंह

Published by Pradeep Th

अनमोल मनुष्य जन्म और आध्यात्मिकता

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