अपनी मृत्यु…अपनो की मृत्यु डरावनी लगती है

अपनी मृत्यु…अपनो की मृत्यु डरावनी लगती है बाकी तो मौत का उत्सव मनाता है मनुष्य…

मौत के स्वाद का
चटखारे लेता मनुष्य
थोड़ा कड़वा लिखा है पर मन का लिखा है……

मौत से प्यार नहीं , मौत तो हमारा स्वाद है ।

बकरे का, पाए का, तीतर का, मुर्गे का, हलाल का, बिना हलाल का, ताजा बच्चे का, भुना हुआ,छोटी मछली, बड़ी मछली, हल्की आंच पर सिक हुआ । न जाने कितने बल्कि अनगिनत स्वाद हैं मौत के ।
क्योंकि मौत किसी और की, ओर स्वाद हमारा ।

स्वाद से कारोबार बन गई मौत ।
मुर्गी पालन, मछली पालन, बकरी पालन, पोल्ट्री फार्म्स ।
नाम “पालन” और मक़सद “हत्या” । स्लाटर हाउस तक खोल दिये । वो भी ऑफिशियल । गली गली में खुले नान वेज रेस्टॉरेंट मौत का कारोबार नहीं तो और क्या हैं ? मौत से प्यार और उसका कारोबार इसलिए क्योंकि मौत हमारी नही है।

जो हमारी तरह बोल नही सकते, अभिव्यक्त नही कर सकते, अपनी सुरक्षा स्वयं करने में समर्थ नहीं हैं,
उनकी असहायता को हमने अपना बल कैसे मान लिया ?
कैसे मान लिया कि उनमें भावनाएं नहीं होतीं ?
या उनकी आहें नहीं निकलतीं ?

डाइनिंग टेबल पर हड्डियां नोचते बाप बच्चों को सीख देते है, बेटा कभी किसी का दिल नही दुखाना ! किसी की आहें मत लेना ! किसी की आंख में तुम्हारी वजह से आंसू नहीं आना चाहिए !

बच्चों में झुठे संस्कार डालते बाप को, अपने हाथ मे वो हडडी दिखाई नही देती, जो इससे पहले एक शरीर थी , जिसके अंदर इससे पहले एक आत्मा थी, उसकी भी एक मां थी …??
जिसे काटा गया होगा ?
जो कराहा होगा ?
जो तड़पा होगा ? जिसकी आहें निकली होंगी ?
जिसने बद्दुआ भी दी होगी ?

कैसे मान लिया कि जब जब धरती पर अत्याचार बढ़ेंगे तो
भगवान सिर्फ तुम इंसानों की रक्षा के लिए अवतार लेंगे ?

क्या मूक जानवर उस परमपिता परमेश्वर की संतान नहीं हैं ?
क्या उस इश्वर को उनकी रक्षा की चिंता नहीं है ?

आज कोरोना वायरस उन जानवरों के लिए, ईश्वर के अवतार से कम नहीं है ।

जब से इस वायरस का कहर बरपा है, जानवर स्वच्छंद घूम रहे है ।
पक्षी चहचहा रहे हैं ।
उन्हें पहली बार इस धरती पर अपना भी कुछ अधिकार सा नज़र आया है । पेड़ पौधे ऐसे लहलहा रहे हैं, जैसे उन्हें नई जिंदगी मिली हो । धरती को भी जैसे सांस लेना आसान हो गया हो ।

सृष्टि के निर्माता द्वारा रचित करोङो करोड़ योनियों में से एक कोरोना ने हमें हमारी ओकात बता दी । घर में घुस के मारा है और मार रहा है । ओर उसका हम सब कुछ नही बिगाड़ सकते । अब घंटियां बजा रहे हो, इबादत कर रहे हो, प्रेयर कर रहे हो और भीख मांग रहे हो उससे की हमें बचा ले ।

धर्म की आड़ में उस परमपिता के नाम पर अपने स्वाद के लिए कभी ईद पर बकरे काटते हो, कभी दुर्गा मां या भैरव बाबा के सामने बकरे की बली चढ़ाते हो ।
कहीं तुम अपने स्वाद के लिए मछली का भोग लगाते हो ।

कभी सोचा…..!!!
क्या ईश्वर का स्वाद होता है ? ….क्या है उनका भोजन ?

किसे ठग रहे हो ? भगवान को ? अल्लाह को ? जीसस को?
या खुद को ?

मंगलवार को नानवेज नही खाता …!!!
आज शनिवार है इसलिए नहीं…!!!
अभी रोज़े चल रहे हैं ….!!!
नवरात्रि में तो सवाल ही नही उठता….!!!

झूठ पर झूठ….
….झूठ पर झूठ
….झूठ पर झूठ…!!

फिर कुतर्क सुनो…..फल सब्जीयों में भी तो जान होती है …?
…..तो सुनो फल सब्जियाँ संसर्ग नहीं करतीं , ना ही वो किसी प्राण को जन्मती हैं ।
इसी लिए उनका भोजन उचित है ।

ईश्वर ने बुद्धि सिर्फ तुम्हे दी । ताकि तमाम योनियों में भटकने के बाद मानव योनि में तुम जन्म मृत्यु के चक्र से निकलने का रास्ता ढूँढ सको । लेकिन तुमने इस मानव योनि को पाते ही स्वयं को भगवान समझ लिया ।

आज कोरोना के रूप में मौत हमारे सामने खड़ी है ।

तुम्ही कहते थे, की हम जो प्रकति को देंगे, वही प्रकृति हमे लौटायेगी । मौते दीं हैं प्रकृति को तो मौतें ही लौट रही हैं ।

बढो…!!!
आलिंगन करो मौत का….!!!

यह संकेत है ईश्क़र का ।
प्रकृति के साथ रहो।
प्रकृति के होकर रहो ।
वर्ना….. ईश्वर अपनी ही बनाई कई योनियो को धरती से हमेशा के लिए विलुप्त कर चुके हैं । उन्हें एक क्षण भी नही लगेगा ।

प्रकृति की ओर चलो

Published by Pradeep Th

अनमोल मनुष्य जन्म और आध्यात्मिकता

One thought on “अपनी मृत्यु…अपनो की मृत्यु डरावनी लगती है

  1. पहली कहानी सुनी ऐसी
    पढे विचार अध्बुध हमने यहाँ
    Gjb लिखा गुरु जी आपने
    लिखा सत्य हैं सब यहाँ।।

    काश विश्व को बदल सकते लेख आज
    काश परिवर्तन शब्द कर सके यहाँ
    काश बदलते भावनाए इंसानी
    काश इंसान जाग्रत होते यहाँ।।

    पीड़ा भोगे आज वही इंसान,
    जिसकी,संवेदनाए जीवित होती यहाँ
    मर्त संवेदनाए,मर्त भावनाए सबकी
    सब मे हम भी शामिल यहाँ।।

    देखते प्रतिदिन सड़को किनारे
    माँस के लोथड़े बिखरे यहाँ
    अध्बुध पीड़ा होती हमे
    पर,कुछ कर ना सके हम यहाँ।।

    क्यो लेखक की होती जाग्रत
    भावनाए,संवेदनाए कहते यहाँ
    क्यो कलम से लिखते पीड़ा
    क्यो न्याय के लिए ना
    लड़ सके यहाँ।।

    जीवित है पर मर्त समान हैं
    हम मर्त से भी गए गुजरे यहाँ
    देख अन्याय नज़रे झुकाए
    हर पल मरते हम यहाँ।।

    केसी पीड़ा हम भोगे गुरु जी
    क्यो कलम थमाई हमे यहाँ
    पल पल मरते मोत अजीब
    क्यो एक बार नही मरते यहाँ।।

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