मन की बाँसुरी

मन की बासुरी

” बाँस की बाँसुरी में से आवाज निकलती है क्योंकि वह खोखली होती है। ठोस लकड़ी का टुकड़ा बाँस की बाँसुरी वाला काम नहीं कर सकता। अभ्यास के समय मन को विचारों से ख़ाली कर देना बाँसुरी बन जाने के समान है। जब अपने आप को अन्तर में विचारों से पूरी तरह ख़ाली करके भजन सुमिरन करते हैं तो हम अन्दर शरीर में निरन्तर गूंज रही शब्द की ध्वनी को सुनने के काबिल बन जाते हैं और हमें , हमारे अन्दर शब्द की ध्वनी पूरे ज़ोर से सुनायी देने लगती है। यह शब्द की ध्वनी इतनी प्यारी, सुरीली और मीठी होती है कि हम इसमें लीन होकर धीरे-धीरे शब्द ( परमात्मा ) में समा जाते हैं और सचखण्ड के वासी बन जाते हैं। फिर हमारा न जन्म होता ना मरण होता है। हम आत्मा से वो एक ही परम आत्मा बन जाते हैं। “

:- हुज़ूर चरन सिंह जी महाराज

कहने का भाव है कि जब तक हम अपने आप को मन से खाली नहीं करते तब तक वो अनहद नाद जो हमारे अपने अंदर हो रहा है उसे सुन ही नहीं पाते।

अभी हमारा मन दुनिया को चाहतों से भरा पड़ा है, दुनिया के रिश्तों नातों के प्यार में फसा पड़ा है। दुनिया की चीज़ों को पाने के लिए बाहर ही बाहर दिन रात दौड़ लगा रहा है। जैसे हिलते हुए पानी में हम अपना अक्ष (परछाई) नही देख सकते जब तक की पानी ठहर नही जाता। ऐसे ही जब तक मन ठहर नही जाता, भाव खाली नही हो जाता है । तब तक हम परमात्मा की तरफ से आ रही उस अनहद नाद को सुन नही सकते है।

मन और जल का एक स्वभाव होता है। जल को जैसे छोड़ते है तो वह नीचे की तरफ जाता है । मन का स्वभाव भी ऐसा ही है जैसे ही उसे ढीला छोड़ा वह नीचे की तरफ इंद्रियों के भोगों में जाता है। जैसे जल को ऊपर चढ़ाने के लिए यंत्र (मशीन) की जरूरत होती है। वैसे ही मन को चढ़ाने के लिए मंत्र (वक्त के पूर्ण गुरु के दिए हुए मंत्र) की जरूरत होती है। तब ही मन बासुरी जैसे खाली होगा तब ही हम अपने अंदर अनहद नाद सुन पाएंगे। जो हर इंसान के अंदर है चाहे किसी भी जाति का हो, धर्म का हो, देश का हो। संतो की शिक्षा सबके लिए एक ही है।

Published by Pradeep Th

अनमोल मनुष्य जन्म और आध्यात्मिकता

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